शीतलाष्टमी का व्रत चैत्रमास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को होता है। इस व्रत में व्रती प्रातःकाल शीतल जल से स्नानादि करके, सुगंध युक्त गंध, पुष्पादि से शीतला माता की पूजा करता है। एक दिन पूर्व बनाये गये मेवे, मिठाई, पुआ, पूरी, दाल, भात, लपसी और रोटी- तरकारी आदि कच्चे- पक्के, पदार्थों से भोग लगाता है। इस भोग को ‘बसियौरा’ या ‘बसेउढा’ (बासी खाना) कहते हैं।
शीतलाष्टमी के दिन गोबर से धरती को लीपकर, ऐपन से अल्पना बनाई जाती है। उस पर गंगाजल से भरा लोटा और कलश स्थापित किया जाता है। इनके मध्य सात पुतले और फूल बनाए जाते हैं। फूल के बाहर गधे पर सवार सात पुतले होते हैं। बाईं ओर हनुमान और दाईं ओर गणेश की आकृति बनाई जाती है। इस दिन घरों में चूल्हा नहीं जलाया जाता। लपसी गुलगले, मीठी पूरियाँ तथा लौंग या लौंग की माला देवी जी पर अवश्य चढ़ाई जाती है।
अवध क्षेत्र में यह लोक-विश्वास है कि किसी को चेचक का रोग होने का अर्थ शीतला माता का कोप है। चेचक निकलने पर ग्रामीण कहते हैं कि शीतला निकल आई। घर में चेचक निकलने के समय जूते पहनना, बाल, नाखून आदि कटवाना, यात्रा करना, भोजन को छौंकना, बाघारना आदि कार्य नहीं होते हैं। रोगी के पास शीतल जल का कलश और नीम के भीगे पत्ते रखे जाते हैं तथा उन पत्तों से रोगी पर हवा की जाती है ताकि उसे शीतलता प्राप्त हो।
एक लोक गीत में शीतला देवी को घर आने का नियंत्रण दिया जा रहा है ताकि समस्त विघ्न बाधायें दूर हो सकें-
‘आवो न शीतला मइया बैठो मोरे अंगना।
देउं सतरंगिया विछाय।
तुमरी सरन मैया जग रची है, जज्ञ सपूरन होय।
घियगुर मैया होम करउबै, जज्ञ सपूरन होय।।’’
किसी बालक के चेचक हो जाने पर उसकी माता शीतला से प्रार्थना करती है-
‘पटुका पसारि भीखि माँगै बालक क माई
हमरा क बालकवा भीखि दो
मोरी दुलारी हो मइया।’’