आषाढ़ मास की पूर्णिमा को `गुरू पूर्णिमा` कहते हैं। इस तिथि को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहते हैं, क्योंकि महर्षि व्यास का जन्म इसी दिन हुआ था। उनकी समस्त रचनाओं, विशेषकर महाभारत का श्री गणेश इसी दिन हुआ था। कुछ लोग आदि गुरू शंकराचार्य को व्यास जी का अवतार मानकर, इसी दिन उनकी पूजा भी करते हैं।
अवध क्षेत्र में इस व्रत को ‘गूरू पूनो’ कहते हैं। यह स्त्री व पुरूषों दोनों ही द्वारा रखा जाता है। व्रतों के दिन गुरू का विशेष महत्व होता है। शिष्यों द्वारा गुरू की पूजा कर, उन्हें दक्षिणा दी जाती है। गुरू अपने शिष्यों की मंगलकामना कर उन्हें आर्शीवाद प्रदान करते हैं। गुरू पूर्णिमा के कुछ गीत निम्नवत है-
‘‘अँगनेहि ठाड़ी सीतल रानी रहिया निहारत।
रामा आवत हयं गुरू हमार त पाछे लछिमन देवर।।
पतवा कय दोनवा बनाइन गंगाजल पानी।
सीता धोवइ लागीं गुरू जी कय चरन अरू मथंवा चढ़ावइ।।’’
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‘‘तुमरा कहा गुरू परग पाँच चलबइ।
गुरू अब न अजोधिया क जाब अरू विधि न मिलाबै।।’’