हिन्दू विक्रमी सम्वत पंचांग के अनुसार ज्येष्ठ माह में कृष्ण पक्ष का त्रयोदशी से अमावस्या तिथि तक किया जाने वाला तीन दिन का व्रत ‘वट सावित्री व्रत’ कहलाता है।
वट वृक्ष की पूजा अवध क्षेत्र में बहुत प्रचलित है। लोगों का विश्वास है कि वट के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु, अग्रभाग में शिव और समग्र में माँ सावित्री विराजमान है।
सावित्री की स्तुति वेदों में भी गाई गई है। वट के रूप में सावित्री देवी की ही पूजा की जाती है। इस पूजा में स्त्रियाँ वटवृक्ष को जल से सींचती है, फल, फूल और अक्षत से पूजती हैं तथा इसके तने में सूत लपेटती हुई, प्रदक्षिणा करती हैं। जिन स्थानों पर वटवृक्ष नहीं होता वहाँ वटवृक्ष की शाखा या वटवृक्ष के चित्र से पूजा की जाती है।
सावित्री और सत्यवान की कथा भी कही जाती है। इस व्रत को सधवा स्त्रियाँ अचल सुहाग की कामना से करती हैं। चतुर्दशी के दिन सावित्री की पूजा होती है। यह चौदह वर्ष का व्रत है। इसमें चैदह फल और चैदह नैवेद्य अर्पित किये जाते हैं। एक मंगल कलश स्थापित किया जाता है।
ऐसी लोक मान्यता है कि सावित्री ने इसी व्रत के प्रभाव से अपने मृत पति सत्यवान को यम लोक से लौटाया था। अवध में इस दिन मिट्टी की सावित्री, सत्यवान तथा महिषारूढ़ यमराज की प्रतिमा बनाकर उसे फल, मिठाई, धूप, चन्दन, हल्दी, रोली आदि से पूजा जाता है।
‘‘जेठ मास वरसाइत होय।
वट पूजन निकरी सब लोय।
सखी सब करकै सोहरहो सिंगार।
मथवा क बेदिंया अजब बहार।’’