यह व्रत भाद्र पद मास की शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को मनाया जाता है। भगवान का रूप अनन्त है। इसी तथ्य को दर्शाने के लिए यह व्रत किया जाता है। इस दिन अनन्त भगवान के लिए व्रत व उपवास किया जाता है।
यह व्रत स्त्री तथा पुरूष दोनों ही रखते हैं। इस व्रत में नमक नहीं खाया जाता; मात्र मीठा ही खाया जाता है। एक सूत्र जिसे गाठों से निर्मित करते हैं, बांह पर बांधा जाता है। यह सूत्र साल भर बाह पर बंधा रहता है, इसे ‘अन्नत सूत्र’ या ‘अनन्ता’ कहते हैं। चौदह वर्ष के पश्चात इस व्रत का उद्यापन होता है। जिसमें चैदह अनन्ता, एक जनाना और मर्दाना कपड़ा, सोहाग पिटारी आदि ब्राह्मण को दान की जाती है।
इस व्रत के प्रताप से अनन्त पुण्य और धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। इस व्रत का उपवास दोपहर तक किया जाता है। मध्यान्ह में भगवान अनन्त की कथा सुनकर इस व्रत की समाप्ति होती है। इस व्रत की कथा के उपरान्त पांच प्रण किये जाते हैं, एक-दूसरों को दान देना; दो बड़ी बहन छोटी के घर नहीं खायेगी; तीन- मामा, भान्जे को अपना जूठा नहीं खिलायेगा; चार- ससुर दामाद के घर नहीं खायेगा; तथा पांचवा- प्रण होता है कि दूध पीकर यात्रा नहीं की जायेगी।