एक समय मद्रदेश में अश्वपति नामक महान् प्रतापी और धर्मात्मा राजा राज करते थे। उनके कोई संतान न थी। उन्होंने संतान हेतु यज्ञ कराया जिसके प्रताप से उनके घर एक कन्या ने जन्म लिया जिसका नाम सावित्री रखा गया।
जब सावित्री विवाह योग्य हुई तो उसने वर के रूप में स्वयं ही द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पति के रूप में वरण कर लिया। जब नारद जी को पता चला तो वे राजा के पास आए और कहा कि तुम्हारी पुत्री ने वर खोजने में भूल की है। सत्यवान गुणवान व धर्मात्मा जरूर है किन्तु एक वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो सकती है। राजा ने सावित्री को बहुत समझाया किन्तु वह अपने निर्णय पर अडिग रही। अंत में राजा अश्वपति विवाह का सारा सामान और सावित्री को लेकर उस वन में गए जहां राज्यश्री से नष्ट, अपनी रानी और राजकुमार सहित द्युमत्सेन रहते थे।
अत: विधिपूर्वक सावित्री-सत्यवान का विवाह हो गया। वह वन में सास-ससुर व पति की सेवा में लीन हो गयी। जब पति के मरणकाल का समय समीप आया तो वह उपवास करने लगी। एक वर्ष पूरा होने पर एक दिन सत्यवान कुल्हाड़ी लेकर वन में लकड़ी काटने जाने लगा तो सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा लेकर उसके साथ चली गयी। जब सत्यवान पेड़ पर चढऩे लगा तो उसके सिर में तीव्र पीड़ा होने लगी और वह अपना सिर सावित्री की गोद में रखकर उस वट वृक्ष के नीचे लेट गया। तभी सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिए यमराज खड़े हैं। फिर वे सत्यवान के अंगुष्ठ प्राण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सावित्री भी उनके पीछे चल दी।
यमराज ने उसे लौट जाने को कहा तो वह बोली, ‘जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहां तक मुझे भी जाना चाहिए। यही सनातन सत्य है।’ यमराज ने उसकी धर्म परायण वाणी सुनकर वर मांगने को कहा तो सावित्री बोली, ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें आप नेत्र ज्योति प्रदान करें।’ यमराज ने वर दे दिया किन्तु फिर भी सावित्री यम के पीछे-पीछे चलती रही। यम ने फिर वर मांगने को कहा तो उसने मांगा कि ‘मेरे ससुर का खोया राज्य उन्हें वापस मिल जाए।’ यह वर देने के बाद उसे लौट जाने को कहा किन्तु वह न मानी। सावित्री की पति-भक्ति और निष्ठा देखकर यमराज द्रवीभूत हो गए और उसे एक और वर मांगने को कहा।
तब सावित्री ने यह वर मांगा कि ‘मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ, कृपया मुझे यह वर दें।’ फिर यम ने प्रसन्न होकर वर देते हुए सत्यवान को अपने पाश से मुक्त कर दिया और अदृश्य हो गये। सावित्री उसी वट वृक्ष के पास आयी जहां सत्यवान लेटा था। तभी उसके मृत शरीर में जीवन का संचार हुआ और वह उठकर बैठ गया। सत्यवान के माता-पिता की आंखें ठीक हो गयी और उनका खोया राज्य भी वापस मिल गया। इससे सावित्री के अनुपम व्रत की कीर्ति सारे देश में फैल गयी। तब से यह मान्यता स्थापित हुई कि सावित्री की इस पुण्यकथा को सुनने पर तथा पति-भक्ति रखने पर महिलाओं के संपूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे और सारी विपत्तियां दूर होंगी।
तभी से इस व्रत को रखने का प्रचलन हुआ। यह घटना एक वट-वृक्ष के नीचे सावित्री के साथ घटित हुई अत: इस व्रत को वट सावित्री व्रत के नाम से जाना जाता है।