वैदिक सनातन धर्म में कुछ पूजा पद्धतियों में किये जाने वाले कुछ कार्य एक विशेष प्रकार से किये जाते है जिन्हे हम सभी प्रयोग भी करते है। किन्तु उनके इस विशेष प्रकार से किये जाने के कारण को सभी नहीं जानते यहाँ पर ऐसे ही कुछ सनातन प्रयोगो के विषय में बताया जा रहा है।
१. प्रात: व संध्याकाल दोनों समय आरती क्यों करनी चाहिए?
`सूर्योदयके समय ब्रह्मांड में देवताओं की तरंगों का आगमन होता है। जीव को इनका स्वागत आरती के माध्यम से करना चाहिए। सूर्यास्त के समय राजसी-तामसी तरंगों के उच्चाटन हेतु जीव को आरती के माध्यम से देवताओं की आराधना करनी चाहिए। इससे जीव की देह के आस-पास सुरक्षा कवच का निर्माण होता है।
२. देवताकी पूर्ण गोलाकार आरती ही क्यों उतारें?
`पंचारती के समय आरती की थाली को पूर्ण गोलाकार घुमाएं। इससे ज्योति से प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगें गोलाकार पद्धति से गतिमान होती हैं। आरती गाने वाले जीव के चारों ओर इन तरंगों का कवच निर्माण होता है। इस कवच को `तरंग कवच' कहते हैं। जीव का ईश्वर के प्रति भाव जितना अधिक होगा, उतना ही यह कवच अधिक समय तक बना रहेगा। इससे जीव के देह की सात्त्विकता में वृद्धि होती है और वह ब्रह्मांड की ईश्वरीय तरंगों को अधिक मात्रा में ग्रहण कर सकता है।
३. कर्पूर-आरतीके पश्चात् देवताओंके नाम का जयघोष क्यों करना चाहिए?
`उद्घोष' यानी जीव की नाभिसे निकली आर्त्त पुकार। संपूर्ण आरती से जो साध्य नहीं होता, वह एक आर्त्त भाव से किए जयघोष से साध्य हो जाता है।
इसी प्रकार के कुछ अन्य प्रश्न अक्सर सामान्य वैदिक सनातन पूजा विधियों का प्रयोग करने वाले भक्तों के मन में आते रहते है। जैसे कि -
• आरती के पूर्व तीन बार शंख क्यों बजाना चाहिए?
• विधियुक्त आरती ग्रहण करनेका अर्थ क्या है?
• परिक्रमा लगानेंके पश्चात् नमस्कार करनेसे क्या लाभ होता है?
• आरती ग्रहण करने के उपरांत `त्वमेव माता, पिता त्वमेव' प्रार्थना क्यों बोलना चाहिए?