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सत्यकाम की कथा

 

 

प्राचीनकाल में हमारे देश में शिक्षा पद्धति गुरुकुलों पर आधारित थी। घने वनों के बीच में, नदियों के किनारों पर अथवा पहाड़ों की सुरम्य घाटियों में ऋषि-महर्षि आश्रम बनाकर रहा करते थे। ये प्रायः गृहस्थ होते थे, जो बालक पढना चाहते थे, उन्हें इन्हीं आश्रमों में आकर रहना पडता था। इन आश्रमों का वातावरण बहत ही सुंदर, शांत एवं सुखद था क्योंकि चारों ओर प्रकृति की छटा बिखरी रहती थी। आश्रमों के समीप ही कल-कल की ध्वनि पैदा करती नदियां बहती अथवा हरे–भरे वृक्षों से भरे पहाड़ों सिर ऊँचा किए खडे दिखाई पडते थे। मिट्टी, बांस और फूस से बने झोपडे आश्रमों में रहने का स्थान थे, जो जाडों में गरम और गर्मियों में ठण्डे रहते थे। चारों ओर फलों से लदे वक्ष एंव लताएं आश्रमों की शोभा बढाती थीं। ऋषि ,महर्षि और विद्वान महात्माओं की ममता और दया से भरा हुआ स्वभाव तथा अहिंसक प्रव्रत्ति हिंसक पशुओं को भी शांत रखता था। छात्रों का मन ऐसे सुंदर वातावरण में अध्ययन में ख़ूब लगता था, लेकिन उनका जीवन बड़ा सयंमी एंव कठोर था। गुरुदेव एंव उनकी पत्नी की सेवा, आज्ञापालन उनका धर्म था। शिक्षा के साथ-साथ आश्रम से संबंधित सभी कार्य वे स्वंय करते थे। इन आश्रमों में सैकड़ों की संख्या में गाएं भी रहती थीं, जिनकी सेवा और देखभाल करना भी छात्रों का अहम कार्य था।
 
छान्दोग्य उपनिषद में इससे संबंधित एक बहुत ही सुंदर कथा है। अत्यन्त निर्धन लेकिन सद्गुणों से सम्पन्न एक स्त्री थी ,जिसका नाम जबाला था। उसके एक पुत्र था, जिसे सभी सत्यकाम कहते थे। एक दिन उसके मन में गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा पैदा हुई। वह चाहता था कि परमपिता परमात्मा के विषय में वह जाने। उसने अपनी माता से अपनी इच्छा प्रकट की। मां बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने सहर्ष गुरुकुल में अपने पुत्र को जाने तथा अध्ययन करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। जिस समय सत्यकाम जाने लगा, उसने अपनी माता से पूछा, 'यदि आचार्य उससे उसका गोत्र पूछेंगे तो वह क्या जवाब दे, क्योंकि उसने तो अपने पिता को देखा ही नहीं है और न उसका गोत्र ही वह जानता है। मां बोली, 'बेटे, मुझे भी तुम्हारे गोत्र का पता नहीं है, क्योंकि जब तुम पैदा हुए थे तो घर अतिथियों से भरा रहता था। मैं सारे दिन उन्हीं की सेवा में लगी रहती थी, तुम्हारे पिता भी इतने व्यस्त रहते थे कि मुझे कभी यह फुर्सत ही नहीं मिली कि उनसे उनका गोत्र पूछ सकूं। इसलिए तुम अपने आचार्य से इतना कह देना कि मैं अपनी मां जबाला का पुत्र सत्यकाम हूं।' सत्यकाम इस उत्तर से सतुष्ट होकर आश्रम के लिए चल पड़ा। वह हारिद्रमत गौतम के आश्रम में पहुँचा और उनसे परमपिता परमात्मा को जानने की शिक्षा देने का आग्रह किया। ऋषि ने उससे उसका गोत्र पूछा। ब्राहाण बालक ने मां के द्वारा बताया गया वही उत्तर कि वह 'सत्यकाम जाबाल' है, बता दिया तथा बोला कि उसे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है।
 
ऋषि उसके सत्य बोलने पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले, 'तुम किसी बहुत ही सज्जन माता-पिता की संतान हो, अतः जाओ, पहले कुछ समिधाएं लेकर आओ ताकि मैं तुम्हारा उपनयन संस्कार करूं, फिर शिक्षा की बात करेंगे।' इस संस्कार द्वारा सत्यकाम को उन्होंने यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करवाया तथा अपने आश्रम में रख लिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने आश्रम की गायों में से चार सौ दुर्बल गांए छांटी और उन्हें सत्यकाम को सौंपते हुए कहा, 'वत्स! इन गायों को लेकर पास के ही वन में चले जाओ और जब यह बढ़कर पूरी हो जाएं तब वापस आना। उस समय मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय में बताऊंगा।' सत्यकाम तुंरत तैयार हो गया और उन गायों को लेकर वन में चला गया। दिन, माह और वर्ष बीतते चले गए लेकिन सत्यकाम को गुरु की आज्ञापालन अर्थात गौओं की सेवा के अतिरिक्त और कोई काम नहीं था। वह चौबीस घंटे, दिन और रात गायों का ध्यान रखता। उनकी सुरक्षा और उनकी देखभाल यह उसकी तपस्या थी। हिंसक जानवरों से उन्हें बचाना तथा उनकी भूख-प्यास का ध्यान रखना यही उसका धर्म, पूजा-पाठ तथा योग साधना थी। जब एक जगह की घास समाप्त हो जाती तो वह उन्हें लेकर दूसरी जगह पहुँच जाता और वहीं डेरा डाल देता। उसके पास रहने का कोई स्थान नहीं था। वृक्षों के साए और गुफ़ांए ही उसका घर थे तथा शरीर पर जो वस्त्र पहन कर वह चला था वही उसके वस्त्र थे। भोजन का कोई ठिकाना न था। गायों का दूध और जंगल के फल ही उसका भोजन थे। धीरे-धीरे समय के साथ-साथ गायों की संख्या भी बढ़ रही थी और एक दिन उसने देखा कि गायों की संख्या पूरी एक हज़ार थी। सभी गाएं स्वतत्रं विचरण, जंगल की खुली हवा तथा नदियों के स्वच्छ पानी एंव हरी-भरी ताजा घास-फूस खाने के कारण पूरी तरह स्वस्थ हो गई थीं। अब सत्यकाम उन्हें लेकर अपने गुरु के आश्रम की ओर चल दिया। गायों का निंरतर ध्यान, शुद्ध एंव शांत वातावरण, गौदुग्ध एंव फलों के आहार ने सत्यकाम को पूरी तरह एकाग्र एंव अतंर्मुखी बना दिया था। एकाकी रहकर दिन रात गायों का ध्यान एंव सेवा रूपी तपस्या से सभी ब्रह्म के विषय में उपदेश दिए। सर्वप्रथम एक सांड गायों में से ही आया फिर अग्निदेव, हंस तथा जलमुर्ग एक-एक करके उसके पास आए और बताया कि इस सारी सष्टि, इस ब्रह्माण्ड का रचयिता ब्रह्म कौन है। उन्होंने उसे साक्षात अनुभव भी कर दिया तथा अन्तर्धान हो गए। सत्यकाम के चेहरे पर ब्रह्मज्ञान का अनुभव करके एक तेज़ प्रकट हुआ। उसके नेत्रों में चमक और वाणी धीर-गम्भीर हो गई। उसकी चाल-ढाल बदल गई। जब वह गायों को लेकर आश्रम में पहुँचा और उसने अपने आचार्य के चरण छूकर बताया कि गायों की संख्या उनके आदेशानुसार एक हज़ार हो गई है तथा वे सभी स्वस्थ, नीरोगी एंव ह्रष्ट-पुष्ट हैं। आचार्य अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने उसके चेहरे के तेज़ और आंखों की चमक को देखा और आश्चर्यचकित रह गए। सत्यकाम के यह कहने पर अब आचार्य उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें। आचार्य ने कहा, 'अब तुम्हें उसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम्हारे चेहरे से यह ज्ञात होता है कि तुम्हें सत्य का ज्ञान प्राप्त हो गया है। यह बताओ कि तुम्हें किसने सत्य का ज्ञान दिया।' सत्यकाम ने सारी घटना सुनाई और बताया कि कैसे देवताओं ने विभिन्न रूपों में आकर उसे सत्य का उपदेश दिया था, लेकिन वह फिर भी उससे संतुष्ट नहीं है, वह तो अपने आचार्य के मुख से ही सत्य को, ब्रह्म को जानना चाहता है, क्योंकि आचार्य के द्वारा जो विद्या प्राप्त होती है वास्तव में वही श्रेष्ठ है। इस प्रकार उसने देवताओं से भी अधिक अपने आचार्य को महत्त्व प्रदान किया था। इस प्रकार सत्यकाम पूर्ण ज्ञानी होकर वापस अपनी मां के पास आ गया और शांति एंव संतोष के साथ अपने धर्म का पालन करने लगा ।