राजर्षि भरत ने जब मृग शरीर का त्याग किया, तो उन्हें ब्राह्मण का शरीर प्राप्त हुआ। ब्राह्मण का शरीर प्राप्त होने पर भी उन्हें अपने पूर्व-जन्म का ज्ञान पहले की ही भांति बना रहा। उन्होंने सोचा। इस जन्म में कोई विघ्न-बाधा उपस्थित न हो, इसलिए उन्हें सजग हो जाना चाहिए। वे अपने कुटुंबियों के साथ पागलों सा व्यवहार करने लगे अर्थात ऐसा व्यवहार करने लगे कि जिससे उनके कुटुंबी यह समझे कि इसके मस्तिष्क में विकार उत्पन्न हो गया है। जड़भरत के पिता उन्हें पंडित बनाना चाहते थे, किंतु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे एक भी श्लोक याद न कर सके। उनके पिता ने उन्हें जड़ समझ लिया। पिता की मृत्यु के पश्चात मां भी चल बसी। कुटुंब में रह गये भाई और भाभियां, जड़भरत के साथ बहुत बुरा व्यवहार करती थीं। जड़भरत इधर-उधर मजदूरी करते थे। जो कुछ मिल जाता था, खा लिया करते थे और जहां जगह मिलती थी, सो जाया करते थे। सुख-दुख और मान-सम्मान को एक समान समझते थे। भाईयों ने जब देखा कि उनके छोटे भाई के कारण उनकी अप्रतिष्ठा हो रही है, तो उन्होंने उन्हें खेती के काम में लगा दिया। जड़भरत रात-दिन खेतों की मेड़ों पर बैठकर खेतों की रखवाली करने लगे। वे शरीर से बड़े स्वस्थ और हट्टे-कट्टे थे। उन्हीं दिनों एक डाकू संतान प्राप्ति के लिए एक मनुष्य की भद्र काली को बलि देने जा रहा था, किंतु जब बलि का समय आया तो वह भाग गया। डाकू ने अपने आदमियों से कहा कि बलि के लिए किसी दूसरे मनुष्य को पकड़कर लाएं। डाकू के साथी किसी दूसरे मनुष्य की खोज में निकल पड़े। उनकी दृष्टि खेत की मेड़ पर बैठे हुए जड़भरत पर पड़ी। वे शरीर से स्वस्थ और हट्टे-कट्टे तो थे ही, डाकू के साथी उन्हें पकड़कर ले गए। डाकू सरदार ने जड़भरत को सुस्वादु भोजन खिलाया। फिर उन्हें माला पहनाकर बलि के लिए भद्रकाली के सामने बैठा दिया। ज्यों ही डाकू ने उन पर खड्ग चलाया, त्यों ही हुंकार के साथ देवी प्रकट हो गईं। उन्होंने डाकू के हाथों से खड्ग छीनकर, उसी खड्ग से उसका मस्तक काटकर फेंक दिया। यह देख डाकू के दूसरे साथी भाग गए। जड़भरत पुनः खेत की मेड़ पर जाकर बैठ गए और पहले की भांति ही रखवाली करने लगे।
एक दिन राजा रहूगण पालकी पर बैठकर, आत्मज्ञान की शिक्षा लेने के लिए कपिल मुनि के पास जा रहे थे। मार्ग में पालकी के एक कहार की मृत्यु हो गई। राजा रहूगण ने अपने सेवकों से कहा कि वे कोई दूसरा कहार खोजकर लाएं। रहूगण के सेवक किसी दूसरे कहार की खोज में निकल पड़े। उनकी दृष्टि खेत की मेड़ पर बैठे हुए जड़भरत पर पड़ी। सेवक उन्हें पकड़कर ले गए। जड़भरत ने बिना कुछ आपत्ति किए हुए, कहारों के साथ पालकी कंधे पर रख ली और बहुत संभल-संभल कर चलने लगे। उनके पैरों के नीचे कोई जीव दब न जाए इसलिए उनके पैर डगमगा उठते थे। इससे राजा रहूगण को झटका लगता था, उन्हें कष्ट होता था। राजा रहूगण ने कहारों से कहा, 'क्यों जी, तुम लोग किस तरह चल रहे हो? संभलकर, सावधानी के साथ क्यों नहीं चलते?' कहारों ने उत्तर दिया, 'महाराज हम तो सावधानी के साथ चल रहे हैं, किंतु यह नया कहार हमारे चलने में विघ्न पैदा करता है। इसके पैर रह-रह कर डगमगा उठते हैं।'
राजा रहूगण ने जड़भरत को सावधान करते हुए कहा, 'क्यों भाई, तुम ठीक से क्यों नहीं चलते? देखने में तो हट्टे-कट्टे मालूम होते हो। क्या पालकी लेकर ठीक से चला नहीं जाता? सावधानी से मेरी आज्ञा का पालन करो, नहीं तो दंड दूंगा।' रहूगण का कथन सुनकर जड़भरत मुस्करा उठे। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, 'आप शरीर को दंड दे सकते हैं, पर मुझे नहीं दे सकते, मैं शरीर नहीं आत्मा हूं। मैं दंड और पुरस्कार दोनों से परे हूं। दंड देने की तो बात ही क्या, आप तो मुझे छू भी नहीं सकते।'
जड़भरत की ज्ञान भरी वाणी सुनकर रहूगण विस्मय की लहरों में डूब गए। उन्होंने आज्ञा देकर पालकी नीचे रखवा दी। वे पालकी से उतरकर जड़भरत के पैरों में गिर पड़े और कहा, 'महात्मन, मुझे क्षमा कीजिए। कृपया बताइए आप कौन हैं? कहीं आप वे कपिल मुनि ही तो नहीं हैं जिनके पास मैं आत्मज्ञान की शिक्षा लेने जा रहा था?'
जड़भरत ने उत्तर दिया, 'राजन! मैं न तो कपिल मुनि हूं और न कोई ॠषि हूं। मैं पूर्वजन्म में एक राजा था। मेरा नाम भरत था। मैंने भगवान श्रीहरि के प्रेम और भक्ति में घर-द्वार छोड़ दिया था। मैं हरिहर क्षेत्र में जाकर रहने लगा था। किंतु एक मृग शिशु के मोह में फंसकर मैं भगवान को भी भूल गया। मृगशिशु का ध्यान करते हुए जब शरीर त्याग किया, तो मृग का शरीर प्राप्त हुआ। मृग का शरीर प्राप्त होने पर भी भगवान की अनुकंपा से मेरा पूर्व-जन्म का ज्ञान बना रहा। मैं यह सोचकर बड़ा दुखी हुआ कि मैंने कितनी अज्ञानता की थी! एक मृगी के बच्चे के मोह में फंसकर मैंने भगवान श्रीहरि को भुला दिया था। राजन, जब मैंने मृग शरीर का त्याग किया, तो मुझे यह ब्राह्मण शरीर प्राप्त हुआ। ब्राह्मण का शरीर प्राप्त होने पर भी मेरा पूर्व-जन्म का ज्ञान बना रहा। मैं यह सोचकर कि मेरा यह जन्म व्यर्थ न चला जाए, अपने को छिपाए हूं। मैं दिन-रात परमात्मारूपी आत्मा में लीन रहता हूं, मुझे शरीर का ध्यान बिलकुल नहीं रहता। राजन, इस जगत में न कोई राजा है। न प्रजा, न कोई अमीर है, न कोई ग़रीब, न कोई कृषकाय है, न कोई स्थूलकाय, न कोई मनुष्य है, न कोई पशु। सब आत्मा ही आत्मा हैं। ब्रह्म ही ब्रह्म हैं।
'राजन, मनुष्य को ब्रह्म की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए। यही मानव-जीवन की सार्थकता है। यही श्रेष्ठ ज्ञान है, और यही श्रेष्ठ धर्म है।' रहूगण जड़भरत से अमृत ज्ञान पाकर तृप्त हो गए। उन्होंने जड़भरत से निवेदन किया, 'महात्मन! मुझे अपने चरणों में रहने दीजिए, अपना शिष्य बना लीजिए।'
जड़भरत ने उत्तर दिया, 'राजन जो मैं हूं, वही आप हैं। न कोई गुरु है, न कोई शिष्य। सब आत्मा है, ब्रह्म हैं।' जड़भरत जब तक संसार में रहे, अपने आचरण और व्यवहार से अपने ज्ञान को प्रकट करते रहे। जब अंतिम समय आया, तो चिरनिद्रा में सो गए, ब्रह्म में समा गए। यह सारा जगत ब्रह्म से निकला है और ब्रह्म में ही समा जाता है। ब्रह्म की इस लीला को जो समझ पाता है, उसी को जगत में सुख और शांति प्राप्त होती है।