एक महात्मा जी ने कहा कि जीव ईश्वर का ही अंश है... जो गुण ईश्वर में हैं, वे जीव में भी मौजूद हैं....तो सुनने वालों में से एक ने पूछा, 'बाबा ! ईश्वर तो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, पर जीव तो अल्पज्ञ और अल्प सामर्थ्य वाला, फिर इस भिन्नता के रहते एकता कैसी?' यह सुनकर महात्मा जी मुस्कराए....फिर उन्होंने उस व्यक्ति से कहा, 'एक लोटा गंगाजल ले आओ...' वह व्यक्ति लोटे में गंगाजल जल भर लाया....फिर महात्मा जी ने उस व्यक्ति से पूछा, 'अच्छा यह बताओ कि गंगा के जल और इस लोटे के जल में कोई अंतर तो नहीं है?'
वह व्यक्ति बोला, 'बिल्कुल नहीं...' महात्मा जी ने कहा, 'देखो, सामने गंगाजल में नावें चल रही हैं.... एक नाव इस लोटे के जल में चलाओ...' यह सुनकर वह व्यक्ति भौंचका रह गया और महात्मा जी का मुंह ताकने लगा.... फिर उसने साहस करके कहा, 'बाबा लोटा तो छोटा है और इसमें थोड़ा ही जल है... इतने में भला नाव कैसे चलेगी भला ...
महात्मा जी ने गंभीर होकर कहा, 'जीव एक छोटे दायरे में सीमाबद्ध होने के कारण लोटे के जल के समान अल्पज्ञ और अशक्त बना हुआ है.... यदि यह जल फिर गंगा में लौटा दिया जाए तो उस पर नाव चलने लगेगी, इसी प्रकार यदि जीव अपनी संकीर्णता के बंधन काटकर महान बन जाए तो उसे ईश्वर जैसी सर्वज्ञता और शक्ति सहज ही प्राप्त हो सकती है