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रोगी कौन और स्वस्थ कौन

 
एक गोष्ठी हो रही थी। प्रश्न उठा—स्वस्थ कौन और रोगी कौन? कुछ बीमार थे। उन्होंने स्वीकार किया—हम बीमार हैं, अमुक-अमुक रोग से ग्रस्त हैं। कुछ स्वस्थ थे। उन्होंने स्वीकार किया—हम स्वस्थ हैं। बीमारी का नाम तक नहीं जानते। चर्चाएं चलीं। स्वस्थ और अस्वस्थ की मीमांसा हुई। एक हट्टे-कट्टे व्यक्ति ने कहा, मैं पूर्ण स्वस्थ हूं।

इतने में ही तीसरे व्यक्ति ने व्यंग्य कसते हुए कुछ बात कह दी। व्यंग्य उस व्यक्ति के लिए गाली का काम कर गया। गाली गोली बन गई। वह तिलमिला उठा। वह आक्रोश में आकर व्यंग्य कसने वाले को बुरा-भला कहने लगा। क्रोध से वह आगबबूला हो गया। उस व्यंग्य करने वाले ने कहा— अरे! अभी तो तुम कह रहे थे कि तुम स्वस्थ हो। थोड़े से व्यंग्य से तिलमिला उठे, आपा खो दिया। क्या यह बीमारी का लक्षण नहीं है?

ऎसे अनेक लोग होते हैं जिनकी धृति और मनोबल बहुत कमजोर होता है। वे छोटी-सी समस्या के आगे घुटने टेक देते हैं। क्या यह बीमारी नहीं है? क्या ज्वर आना ही बीमारी है? क्या क्रोध से उत्तप्त हो जाना बीमारी नहीं है? स्वास्थ्य केवल शरीर से जुड़ा हुआ ही नहीं होता। उसका सम्बंध भाव से भी है। भावना के स्तर पर जो आदमी बीमार नहीं होता, वही सही अर्थ में स्वस्थ होता है।

भावना के स्तर पर जो बीमार होता है, शरीर के बीमार न होने पर भी वह बीमार ही है। धीरे-धीरे शारीरिक बीमारियां भी उसे घेर लेती हैं। जिस व्यक्ति ने भाव को नहीं समझा, उस व्यक्ति ने अध्यात्म को नहीं समझा।