प्रसिद्ध राजा प्रसून के जीवन की घटना है। अपने गुरु के विचारों से प्रभावित होकर राजा ने राज्य का त्याग कर दिया, साधु-संन्यासियों के जैसे गेरुए कपड़े पहनकर हाथ में कमंडलु और भिक्षा पात्र लेकर निकल पड़े। शाम होने पर नियत से भजन-कीर्तन, जप-तप और पूजा-पाठ करते। यही सब कुछ करते हुए एक लंबा समय गुजर गया, लेकिन राजा प्रसून के मन को वह शांति नहीं मिली जिसके लिये उसने अपना राज-पाट छोड़ा था। राजा दुखी होकर एक दिन अपने गुरु के पास पहुंचा और अपनी मन की तकलीफ सुनाने लगा। राजा की सारी बात सुनने के बाद गुरु हंसे और बोले – ”जब तुम राजा थे और अपने उद्यान का निरीक्षण करते थे, तब अपने माली से पौधे के किस हिस्से का विशेष ध्यान रखने को कहते थे?” अपने गुरु की बात ध्यान से सुनकर राजा प्रसून बोला – ”गुरुदेव! वैसे तो पौधे का हर हिस्सा महत्वपूर्ण होता है, लेकिन फिर भी यदि जड़ों का ठीक से ध्यान न रखा जाए तो पूरा पौधा ही सूख जाएगा।”राजा का जवाब सुनकर गुरु प्रसन्न हुए और बोले – ”वत्स! पूजा-पाठ, जप-तप, कर्मकांड और यह साधु-सन्यासियों का पहनावा भी सिर्फ फूल-पत्तियां ही हैं, असली जड़ तो आत्मा है। यदि इस आत्मा का ही शुद्धिकरण नहीं हुआ तो बाहर की सारी क्रियाएं सिर्फ आडम्बर बन कर ही रह जाते हैं। आत्मा की पवित्रता का ध्यान न रखने के कारण ही बाहरी कर्मकांड बेकार चला जाता है।”इस सच्ची व बेहद कीमती सुन्दर कथा का सार यही है कि यदि मनुष्य का प्रयास अपनी आत्मा के निखार और जागरण में लगे तो ही उसके जीवन में सच्चा सुख-शांति और स्थाई समृद्धि आ सकती है। अन्यथा बाहरी पूजा-पाठ यानी कर्मकांड सिर्फ मनोरंजन का साधन मात्र ही बन जाते हैं।