श्री रामचरितमानस में यह कथा आयी है कि देवर्षि नारदजी को कामपर विजय करने से गर्व हो गया था. और वे शंकर जी को इसलिए हेय समझने लगे कि उन्होंने कामदेव को क्रोध से जला दिया, इसलिए वे क्रोधी तो ही ही, किन्तु मै काम और क्रोध दोनों से उपर उठा हुआ हु. पर मूल बात यह थी कि जहाँ नारदजी ने तपस्या की थी, शंकर जी ने उस तप:स्थली को कामप्रभाव से शुन्य होने का वर दे दिया था और नारदजी ने जब शंकर जी से यह बात कह डाली, तब भगवान शंकर ने उन्हें इस बात को विष्णु भगवान को कहने से रोका. इस पर नारदजी ने सोचा के ये मेरे महत्त्व को नष्ट करना चाहते है. अत: यह बात उन्हों ने भगवान विष्णु से कह डाली. भगवान विष्णु ने उनके कल्याण के लिए अपनी माया से श्रीमतिपुरी नाम कि एक नगरी खड़ी कर दी, जहाँ विश्वमोहिनी के आकर्षण में नारदजी भी स्वयंवर में पधारे, पर साक्षात भगवान विष्णु ने वहां जाकर विश्वमोहिनी स
े विवाह कर लीया, यह सब देखकर नारदजी को बड़ा क्रोध आया. काम के वश में तो वे पहले ही हो चके थे. अब क्रोध में आकर उन्होंने भगवान विष्णु को अनेक अपशब्द कहे और स्त्री-वियोग में विक्षिप्त सा होने का भी शाप दे दिया, तब भगवान ने अपनी माया दूर कर दी और विश्वमोहिनी के साथ लक्ष्मी भी लुप्त हो गई. तब नारदजी की बुद्धि भी शुद्ध और शांत हो गयी. उन्हें सारी बीती बाते ध्यान में आ गई. वे अत्यंत सभीत होकर भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे कि भगवान मेरा शाप मिथ्या हो जाये और मेरे पापो कि सीमा नहीं रही. क्योकि मैंने आपको अनेक दुर्वचन कहे
इस पर भगवान विष्णु ने कहा कि शिवजी मेरे सर्वाधिक प्रिय है, वे जिस पर कृपा नहीं करते है उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती. अत: आप शिवशतनाम का जप कीजिये , इससे आपके सब दोष-पाप मिट जायेंगे और पूर्ण ज्ञान -वैराग्य तथा भक्ति की राशी सदा के लिए आपके हृदय में स्थित हो जाएगी
तब भगवान विष्णु ने अपने भगत नारद जी के श्राप को पूरा करने के लिए धरती पर श्री राम जी का