भगवान बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के लिए घोर तप में लगे थे। उन्होंने शरीर को काफी कष्ट दिया, यात्राएं कीं, घने जंगलों में कड़ी साधना की, पर आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन निराश हो बुद्ध सोचने लगे- मैंने अभी तक कुछ भी प्राप्त नहीं किया। अब आगे क्या कर पाऊंगा? निराशा, अविश्वास के इन नकारात्मक भावों ने उन्हें क्षुब्ध कर दिया। कुछ ही क्षणों बाद उन्हें प्यास लगी। वे थोड़ी दूर स्थित एक झील तक पहुंचे। वहां उन्होंने एक दृश्य देखा कि एक नन्ही-सी गिलहरी के दो बच्चे झील में डूब गए।
पहले तो वह गिलहरी जड़वत बैठी
रही, फिर कुछ देर बाद उठ कर झील के पास गई, अपना सारा शरीर झील के पानी में भिगोया और फिर बाहर आकर पानी झाड़ने लगी। ऐसा वह बार-बार करने लगी। बुद्ध सोचने लगे : इस गिलहरी का प्रयास कितना मूर्खतापूर्ण है। क्या कभी यह इस झील को सुखा सकेगी? किंतु गिलहरी यह क्रम लगातार जारी था। बुद्ध को लगा मानो गिलहरी कह रही हो कि यह झील कभी खाली होगी या नहीं, यह मैं नहीं जानती, किंतु मैं अपना प्रयास नहीं छोड़ूंगी।
अंतत: उस छोटी- सी गिलहरी ने भगवान बुद्ध को अपने लक्ष्य-मार्ग से विचलित होने से बचा लिया। वे सोचने लगे कि जब यह नन्ही गिलहरी अपने लघु सामथ्र्य से झील को सुखा देने के लिए दृढ़ संकल्पित है तो मुझमें क्या कमी है? मैं तो इससे हजार गुना अधिक क्षमता रखता हूं। यह सोचकर गौतम बुद्ध पुन: अपनी साधना में लग गए और एक दिन बोधिवृक्ष तले उन्हें ज्ञान का आलोक प्राप्त हुआ। कथा असफलता के बावजूद प्रयासों की निरंतरता पर बल देती है। यदि हम प्रयास करना न छोड़ें तो एक न एक दिन लक्ष्य की प्राप्ति हो ही जाती है।