सत्ता के अधिकार के लिए दैत्य और देवताओं में शत्रुता उत्पन्न होने के कारण दैत्य सदा देवताओं पर आक्रमण कर युद्ध करते रहते थे। इसी बात को लेकर एक बार दैत्य और देवताओं के बीच भयानक युद्ध हुआ। यह युद्ध अनेक वर्षों तक चला। इस युद्ध के कारण देवताओं और सृष्टि का अस्तित्व संकट में पड़ गया। अंत में दैत्यों से पराजित होकर देवगण जान बचाकर वन-वन भटकने लगे। देवताओं की यह दुर्दशा देखकर उनके पिता महर्षि कश्यप और माता अदिति दुःखी रहने लगे।
एक बार देवर्षि नारद घूमते-घूमते कश्यपजी के आश्रम की ओर आ निकले। वहाँ देव माता अदिति और महर्षि कश्यप को व्याकुल देखकर उन्होंने उनसे चिंतित होने का कारण पूछा। अदिति बोलीं-“देवर्षि! दैत्यों ने युद्ध में देवताओं को पराजित कर दिया है। इन्द्रादि देवगण वन-वन भटक रहे हैं। हमें उनकी रक्षा करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इसलिए हम चिंतित और व्याकुल हैं।”
अदिति का कथन सुनकर नारदजी बोले-“माते! इस संकट से बचने का केवल एक उपाय है। आप उपासना करके भगवान सूर्य को प्रसन्न करें और उनसे पुत्र रूप में प्रकट होने का वर प्राप्त करें। सूर्यदेव के तेज के समक्ष ही दैत्य पराजित हो सकते हैं और देवताओं की रक्षा हो सकती है।” इस प्रकार अदिति को भगवान सूर्य की तपस्या करने के लिए प्रेरित कर देवर्षि नारद वहाँ से चले गए। तत्पश्चात अदिति कठोर तप करने लगीं। अनेक वर्ष बीत गए। अंत में भगवान सूर्यदेव साक्षात प्रकट हुए और उनसे मनोवांछित वरदान माँगने के लिए कहा।
अदिति ने उनकी स्तुति की। तत्पश्चात बोली-“सूर्यदेव! आप भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण करते हैं। आपकी पूजा-उपासना करने वाला कभी निराश नहीं होता। मेरी केवल यह विनती है कि आप मेरे पुत्र के रूप में उत्पन्न होकर देवताओं की रक्षा करें।” अदिति को मनोवांछित फल देकर सूर्य भगवान अंतर्धान हो गए। कुछ दिनों के बाद सूर्य भगवान का तेज अदिति के गर्भ में स्थापित हो गया।
एक बार महर्षि कश्यप और अदिति कुटिया में बैठे थे। तभी किसी बात पर क्रोधित होकर कश्यप ने अदिति के गर्भस्थ शिशु के लिए ‘मृत’ शब्द का प्रयोग कर दिया। कश्यप ने जैसे ही ‘मृत’ शब्द का उच्चारण किया, तभी अदिति के शरीर से एक दिव्य प्रकाश पुंज निकला। उस प्रकाश पुंज को देखकर कश्यप मुनि भयभीत हो गए और सूर्यदेव से अपने अपराध की क्षमा माँगने लगे। तभी एक दिव्य आकाशवाणी हुई-“मुनिवर! मैं तुम्हारे अपराध को क्षमा करता हूँ। मेरी आज्ञा से तुम इस पुंज की नियमित उपासना करो। उचित समय पर इसमें से एक दिव्य बालक जन्म लेगा और तुम्हारी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने के बाद ब्रह्माण्ड के मध्य में स्थित हो जाएगा।”
महर्षि कश्यप और अदिति ने वेद मंत्रों द्वारा प्रकाश पुंज की स्तुति आरंभ कर दी। उचित समय आने पर उसमें से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ। उसके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था। यही बाल ‘आदित्य’ और ‘मार्तण्ड’ आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ।
आदित्य वन- वन जाकर देवताओं को एकत्रित करने लगा। आदित्य के तेजस्वी और बलशाली स्वरूप को देख इन्द्र आदि देवता अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने आदित्य को अपना सेनापति नियुक्त कर दैत्यों पर आक्रमण कर दिया। आदित्य के तेज के समक्ष दैत्य अधिक देर तक नहीं टिक पाए और शीघ्र ही उनके पाँव उखड़ गए। वे अपने प्राण बचाकर पाताल लोक में छिप गए।
सूर्यदेव के आशीर्वाद से स्वर्ग लोक पर पुनः देवताओं का अधिकार हो गया। सभी देवताओं ने आदित्य को जगत पालक और ग्रहराज के रूप में स्वीकार किया।
सृष्टि को दैत्यों के अत्याचारों से मुक्त कर भगवान आदित्य सूर्यदेव के रूप में ब्रह्माण्ड के मध्य भाग में स्थित हो गए और वहीं से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कार्य-संचालन करने लगे।