अपाला परमज्ञानी अत्रि ऋषि की पुत्री थीं। अपाला असाधारण प्रतिभा की स्वामिनी एवं महान विदुषी थीं। पिता के आश्रम में दूर-दूर से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे और सम्पूर्ण वेद-वेदांगों में पारंगत होकर लौटते थे। ऋषि अपने शिष्यों से पुत्रवत् स्नेह करते थे। नया पाठ पढ़ाने से पहले ऋषि पुराना पाठ सुनते थे। एक दिन एक शिष्य पुराना पाठ न सुना पाया और डर गया। उसी पाठ का गायन मधुर स्वर में गूंजने लगा। महर्षि चकित हो गये कि सारे शिष्य यहीं बैठे हैं। पीछे से किसकी आवाज आ रही है। महर्षि ने कक्षा छोड़ बाहर जाकर देखा तो उन्होंने पौधों व लताओं को सींचते हुए अपनी कन्या अपाला को मधुर स्वर में वेद ऋचाओं का गायन करते सुना। जब अपाला ने पिता को देखा तो घबरा गयीं। ऋषि के यह पूछने पर यह ऋचा उसने कहां से सीखी? उनका जवाब था कि पिताश्री आप शिष्यों को जो पढ़ाते हैं उन्हें मैं सुन-सुन कर ही याद कर लेती हूं।
महर्षि अत्रि अपनी नन्हीं अपाला का शुद्ध उच्चारण, शब्दों पर उसकी सही पकड़ और मधुर स्वर देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्होंने महसूस कर लिया कि उनकी पुत्री विलक्षण प्रतिभाओं की धनी है। उसके बाद उन्होंने विधिवत उन्हें वेद पढ़ाए।
लेकिन ऋषि पुत्री अपाला भाग्य की धनी नहीं थीं। उनके शरीर पर सफेद कोढ़ था। त्वचा रोग से ग्रस्त होने के कारण महर्षि बहुत दु:खी व चिन्तित थे परन्तु उनकी विद्वता की चर्चा दूर-दूर तक फैल गयी थी। अत: ऋषि को उनके लिए उनसे अधिक विद्वान जमाता ढूंढना था। वे जानते थे कि अपाला के भाग्य में विवाह का सुख नहीं है। अत: ऋषि ने अपाला को उच्चस्तरीय ब्रह्मज्ञान देकर उनकी प्रतिभाओं को और निखारा।
एक दिन ऋषि के आश्रम में एक युवा ऋषि कृशाश्व आये। अपाला की कुशाग्र बुद्धि से प्रभावित होकर उन्होंने अपाला से विवाह की इच्छा जाहिर की। महर्षि ने सुयोग्य जमाता को पाकर प्रसन्न हो अपाला का विवाह कर दिया। ऋषि कृशाश्व अपाला के गुणों से प्रभावित थे परन्तु उन्हें उनके चर्म रोग के बारे में नहीं मालूम था। विवाह के बाद जब उन्हें त्वचा के दागों का पता चला तो वे बहुत निराश हुए। उन्होंने अपाला में दोष भी निकालने शुरू कर दिये। लज्जा, ग्लानि व अपमान से आहत हो स्वाभिमानी अपाला ने पति का घर छोड़ दिया और वापस पिता के आश्रम आ गयीं।
पति के घर हुए अपमान तथा सुखद क्षणों को भुलाने के लिए वह पहले से अधिक गहन अध्ययन में लग गयीं। कभी वह उदास होतीं तो ऋषि उन्हें समझाते तुम तो विदुषी हो ज्ञान से अज्ञान को जीतो और नित्य से अनित्य को। ज्ञान का भीतरी सौन्दर्य तुम्हें अमर बना देगा। बस चिन्तन मनन करो, ऋचाएं रचो तथा देवताओं की नियमित उपासना करो।
अपाला द्वारा रचे मंत्रों में इन्द्र देवता का प्रशस्ति गान है। सोमरस इन्द्र का प्रिय पेय था। अपाला नित्य सोमलता उखाड़ दांतों से चबाकर उसका रस निकालती थीं। इन्द्र ने जब आकर देखा तो आश्चर्यचकित रह गये। इन्द्र ने उस रस का पान किया और प्रसन्न होकर अपाला को रोगमुक्त किया और सुखी व अमरजीवन जीने का वरदान भी दिया। अपाला की त्वचा कान्तियुक्त हो गयी, उनका रोग हमेशा के लिए दूर हो गया। अपाला द्वारा रचित मंत्रों में धरती की कन्या का देवता से प्यार तथा इन्द्र का प्रशस्तिगान तथा इन्द्र द्वारा अपाला को रोग मुक्ति के रूप में दिया गया प्यार का प्रतिदान इत्यादि का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद की आठवीं पुस्तक में इसका वर्णन है।