परोपकार दो शब्दों के मेल से बना है , पर ( दूसरों ) + उपकार , दूसरों पर उपकार अर्थात् हम इसे भलाई भी कह सकते है जो की हम दुसरो के करते है । भगवान् ने हमें ऐसी शक्तियाँ व सामर्थ्य दिया हैं , जिससे हम दूसरों का कल्याण कर सकते हैं। हमारे लिए यह खुद अकेले के करने से सम्भव नहीं होगा इसलिए हम केवल अपनी ही भलाई की चिंता करें व दूसरों से कोई सरोकार नहीं रखे
कोई भी मानव अकेले स्वयं की भलाई नहीं कर सकता। उसके अकेले के प्रयत्न करने से कुछ काम नहीं आने वाले , उसको इसके लिए दूसरे का साथ अवश्य चाहिए। यदि हम अकेले ही सब कर पाते , तो आज कोई भी मनुष्य इस संसार में दु : खी नहीं रहता। हम सब धनवान , वर्चस्वशाली होने की कामना करते हैं , परंतु यह सब अकेले संभव नहीं है। बिना दूसरों की सहायता व सहयोग के कोई व्यक्ति अपने को ऊपर नहीं उठा सकता। अगर हम स्वयं के लिए ही सोचकर कोई आविष्कार करें , तो वह अविष्कार व्यर्थ है। अगर कोई भी मनुष्य अपने बारे में ही सोच कर अविष्कार करता , तो आज हम इतनी तरक्की नहीं कर पाते। यही भावना हम प्रकृति के कण - कण में देख सकते हैं - सूर्य , चन्द्र , वायु , पेड़ - पौधे , नदी , बादल और हवा बिना स्वार्थ के संसार की सेवा में लगे हुए हैं।
सूर्य बिना किसी स्वार्थ के अपनी रोशनी से इस जगत को जीवन देता है , चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से सबको शीतलता प्रदान करता है , वायु अपनी प्राणवायु से संसार के प्रत्येक छोटे - बड़े जीव को जीवन देती है , पेड़ - पौधे अपने फलों से सबको जीवन देते हैं और नदियाँ व बादल अपने जल के माध्यम से इस जगत में सबको पानी का अमृत देते हैं। ये सब बिना किसी स्वार्थ के युग - युगों से निरन्तर सब की सेवा करते आ रहे हैं। इसके बदले ये हमसें कुछ भी अपेक्षा नहीं करते , ये बस परोपकार करते हैं।