प्राचीन काल में एक राजा का यह नियम
था कि वह अनगिनत संन्यासियों को दान देने के
बाद ही भोजन ग्रहण करता था. एक दिन नियत
समय से पहले ही एक
संन्यासी अपना छोटा सा भिक्षापात्र लेकर
द्वार पर आ खड़ा हुआ. उसने राजा से कहा –
“राजन, यदि संभव हो तो मेरे इस छोटे से पात्र में
भी कुछ भी डाल दें.”
याचक के यह शब्द राजा को खटक गए पर वह
उसे कुछ भी नहीं कह सकता था. उसने अपने
सेवकों से कहा कि उस पात्र को सोने के
सिक्कों से भर दिया जाय. जैसे ही उस पात्र में
सोने के सिक्के डाले गए, वे उसमें गिरकर गायब
हो गए. ऐसा बार-बार हुआ. शाम तक
राजा का पूरा खजाना खाली हो गया पर वह
पात्र रिक्त ही रहा. अंततः राजा ही याचक
स्वरूप हाथ जोड़े आया और उसने संन्यासी से
पूछा – “मुझे क्षमा कर दें, मैं समझता था कि मेरे
द्वार से कभी कोई खाली हाथ नहीं जा सकता.
अब कृपया इस पात्र का रहस्य भी मुझे बताएं.
यह कभी भरता क्यों नहीं?” संन्यासी ने कहा –
“यह पात्र मनुष्य के ह्रदय से बना है. इस संसार
की कोई वस्तु मनुष्य के ह्रदय को नहीं भर
सकती. मनुष्य कितना ही नाम, यश, शक्ति, धन,
सौंदर्य, और सुख अर्जित कर ले पर यह
हमेशा और की ही मांग करता है. केवल ईश्वरीय
प्रेम ही इसे भरने में सक्षम है.”