एक संन्यासी एक राजा के पास पहुंचे। राजा ने उनका खूब आदर-सत्कार किया। संन्यासी कुछ दिन वहीं रुक गए। राजा ने उनसे कई विषयों पर चर्चा की और अपनी जिज्ञासा सामने रखी। संन्यासी ने विस्तार से उनका उत्तर दिया। जाते समय संन्यासी ने राजा से अपने लिए उपहार मांगा।
राजा ने एक पल सोचा और कहा, 'जो कुछ भी खजाने में है, आप ले सकते हैं।' संन्यासी ने उत्तर दिया, 'लेकिन खजाना तुम्हारी संपत्ति नहीं है, वह तो राज्य का है और तुम मात्र उसके संरक्षक हो। ' राजा बोले, 'तो यह महल ले लीजिए।' इस पर संन्यासी ने कहा 'यह भी तो प्रजा का है।' इस पर राजा ने कहा, 'तो मेरा यह शरीर ले लीजिए।' संन्यासी ने उत्तर दिया, 'शरीर तो तुम्हारी संतान का है। मैं इसे कैसे ले सकता हूं?'
राजा ने हथियार डालते हुए कहा, 'तो महाराज आप ही बताएं कि ऐसा क्या है जो मेरा हो और आपको देने लायक हो?' संन्यासी ने उत्तर दिया, 'हे राजा, यदि तुम सच में मुझे कुछ देना चाहते हो, तो अपना अहं दे दो। अहंकार पराजय का द्वार है। यह यश का नाश करता है। यह खोखलेपन का परिचायक है। अहंकार का फल क्रोध है। अहंकार वह पाप है जिसमें व्यक्ति अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है। वह जिस किसी को अपने से सुखी-संपन्न देखता है, ईर्ष्या कर बैठता है। अहंकार वह विचार है कि मैं ही हूं इस पूरे ब्रह्मांड का केन्द्र। अहंकार हमें सभी से अलग कर देता है।