सकट चौथ व्रत कथा के अनुसार, सतयुग में हरिश्चन्द्र नामक एक धर्मात्मा साधु-सेवी सत्यवादी राजा थे, उनके राज्य में कोई दुखी न था। इसी राज्य में ॠषि शर्मा नामक एक ब्राह्मण रहते थे उनके एक पुत्र पैदा हुआ और उसके कुछ समय बाद ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। ब्राह्मणी दुखी होकर अपने पुत्र का पालन करने लगी और गणेश चौथ का व्रत भी करती थी।
एक दिन उसका पुत्र गणेश जी की प्रतिमा को लेकर खेलने को निकल गया। एक दुष्ट कुम्हार ने उस बालक को आवाँ में रख कर आग लगा दी। इधर जब लड़का घर नहीं आया तो ब्राह्मणी दुखी हुई और विलाप करती हुई गणेश जी से अपने पुत्र के लिए प्रार्थना करने लगी। व्यथित होकर वह कहने लगी, “हे अनाथों के नाथ, मेरी रक्षा करो मैं आपकी शरण में हूँ ”, इस प्रकार वह रात भर विलाप करती रही।
प्रातः काल कुम्हार आवाँ देखने आया तो उसने देखा कि आवें में खूब सारा पानी भरा हुआ है। इस घटना को देख कर कुम्हार ने राजा के पास जाकर सभी को समाचार सुनाया और बोला, “नाथ, मैंने अनर्थ किया है और मैं वध के योग्य हूँ। प्रभु, मैंने अपनी कन्या के विवाह के लिए बर्तनों का आवाँ लगाया था परन्तु बर्तन नहीं पके। मुझे एक चेटक जानने वाले ने बताया कि तुम किसी बालक की बलि दे दो तुम्हारा आवाँ पक जाएगा। सो मैंने इस बालक की बलि दी परन्तु अब इस आवें में पानी भर गया और वह बालक उसमें खेल रहा था”।
राजा उस कुम्हार के घर गए। उसी समय ब्राह्मणी वहाँ आ गई और बालक को उठाकर कलेजे से लगा कर चूमने लगी। उसी समय राजा हरिश्चन्द्र ब्राह्मणी से बोले, “तेरा पुत्र अग्नि में भस्म क्यों नहीं हुआ, ऐसा कौन सा व्रत तप योग करती है”? ब्राह्मणी बोली, “महाराज, मैं कोई भी विद्या नहीं जानती हूँ और न कोई तप करती हूँ। मैं संकटनाशक गणेश चौथ का व्रत करती हूँ। इसी व्रत के प्रभाव से मेरा पुत्र कुशलपूर्वक है”।
राजा बोले, “आज से मेरी प्रजा भी इस व्रत को करे”। समस्त नगर वासी गणेश चौथ का व्रत करने लगे। श्री कृष्ण जी युधिष्ठिर से बोले, “हे धर्मराज, आप भी इस व्रत को करें, इस व्रत के प्रभाव से आपके सभी मनोरथ पूर्ण होंगे और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होगी”।
युधिष्ठिर ने इस व्रत को कर के अपना राज्य प्राप्त किया।