राजा जनक की पुत्री का नाम सीता इसलिए था कि वे जनक को हल कर्षित रेखाभूमि से प्राप्त हुई थीं। बाद में उनका विवाह भगवान राम से हुआ। वाल्मीकि रामायण में जनक जी सीता की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार कहते हैं:
अथ मे कृषत: क्षेत्रं लांगलादुत्थिता तत:।
क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता॥
भूतकादुत्त्थिता सा तु व्यवर्द्धत ममात्मजा।
दीर्यशुक्लेति मे कन्या स्थापितेयमयोनिजा॥
यही कथा पद्म पुराण तथा भविष्य पुराण में विस्तार के साथ कही गयी है।
सीता एक नदी का नाम है।
भागवत के अनुसार वह भद्राश्व वर्ष की गंगा है:
सीता तु ब्रह्मसदनात् केशवाचलादि गिरशिखरेभ्योऽधोऽध: प्रस्त्रवन्ती गन्धमादनमूर्द्धसु पतित्वाऽन्तरेण भद्राश्वं वर्ष प्राच्यां दिशि क्षारसमुद्रं अभिप्रविशति।
गंगायान्तु भद्रसोमा महाभद्राथ पाटला।
तस्या: स्तोत्रसि सीता च वड्क्षुर्भद्रा च कीर्तिता॥
तद्भेदेऽलकनन्दापि शारिणी त्वल्पनिम्नगा ॥
“नारी के जिस भव्य भाव का, स्वाभिमान भाषी हूँ मैं । उसे नरों में भी पाने का, उत्सुक अभिलाषी हूँ मैं॥
सीता- रामकाव्य परम्परा के अंतर्गत सीता भारतीय नारी-भावना का चरमोत्कृष्ट निदर्शन है, जहाँ नाना पुराण निगमागमों में व्यक्त नारी आदर्श सप्राण एवं जीवन्त हो उठे हैं । नारी पात्रों में सीता ही सर्वाधिक, विनयशीला, लज्जाशीला, संयमशीला, सहिष्णु और पातिव्रत की दीप्ति से दैदीप्यमान नारी हैं । समूचा रामकाव्य उसके तप, त्याग एवं बलिदान के मंगल कुंकुम से जगमगा उठा है । लंका में सीता को पहचानकर उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए हनुमान जी ने कहा-
“दुष्करं कृतवान् रामो हीनो यदनया प्रभुः धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनावसीदति । यदि नामः समुद्रान्तां मेदिनीं परिवर्तयेत् अस्थाः कृते जगच्चापि युक्त मित्येव मे मतिः।।
अर्थात् ऐसी सीता के बिना जीवित रहकर राम ने सचमुच ही बड़ा दुष्कर कार्य किया है। इनके लिए यदि राम समुद्र-पर्यन्त पृथ्वी को पलट दें तो भी मेरी समझ में उचित ही होगा, त्रैलौक्य का राज्य सीता की एक कला के बराबर भी नहीं है । पत्नी व पति भारतीय संस्कृति में एक-दूसरे के पूरक हैं । आदर्श पत्नी का चरित्र हमें जगदम्बा जानकी के चरित्र में तब तक दृष्टि-गोचर होता है, जब श्रीराम द्वारा वन में साथ न चलने की प्रेरणा करने पर अपना अंतिम निर्णय इन शब्दों में कह देती है- प्राणनाथ तुम्ह बिनु जग माहीं । मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं । जिय बिन देह नदी बिनु बारी । तैसिअ नाथ पुरूष बिनु नारी॥
विषादग्रस्त होकर भी पत्नी अथवा पति को अपने जीवन-साथी का ध्यान रखना भारतीय सांस्कृतिक आदर्श है । सीता को अशोकवाटिका में रखकर रावण ने साम, दाम, दण्ड, भेद आदि उपायों से पथ-विचलित करने का प्रयास किया, परन्तु सीता मे अपने पारिवारिक आदर्श का परिचय देते हुए केवल श्रीराम का ही ध्यान किया, यथा- तृन धरि ओट कहति वैदेही, सुमिरि अवधपति परम सनेही । सुनु दस मुख खद्योत प्रकासा, कबहुँ कि नलिनी करइ विकासा॥
वनगमन के अवसर पर सीता जब उर्मिला के प्रति संवेदना प्रकट करती है, उस समय माता सुमित्रा के मार्मिक उद्गारों में सीता के चरित्र की झाँकी मिलती है-
पति-परायणा, पतित भावना, भक्ति भावना, भक्ति भावना मृदु तुम हो, स्नेहमयी, वात्सल्यमयी, श्रीकृराम-कामना मृदु तुम हो॥
सीता एक ओर भारतीय आदर्श पत्नी है, जिनमें पति-परायणता, त्याग, सेवा, शील और सौजन्य है, तो दूसरी ओर वे युग-जीवन की मर्यादा के अनुरूप श्रमसाध्य जीवन-यापन में गौरव का अनुभव करने वाली नारी हैं, यथा-
औरों के हाथों यहाँ नहीं चलती हूँ । अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ॥
लोकापवाद के कारण सीता निर्वासित होती है, परन्तु वह अपना उदार हृदय व सहिष्णु चरित्र का परित्याग नहीं करती और न ही पति को दोष देती है, बल्कि इसे लोकोत्तर त्याग कहकर शिरोधार्य करती है व अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करती है-
यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाऊँगी । जीवनधर पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगी । है लोकोत्तर त्याग अपना लोकाराधन है न्यारा । कैसे संभव है कि वह न हो शिरोधार्य्य मेरे द्वारा ।।